Archive for 26 अप्रैल 2013


प्रेमचंद  धनपत राय


तथ्य

                                                                                                        प्रेमचंद


ह भेद अमृत के मन में हमेशा ज्यों-का-त्यों बना रहा और कभी न खुला। न तो अमृत की नजरों से न उसकी बातों से और न रंग-ढंग से ही पूर्णिमा को कभी इस बात का नाम को भी भ्रम हुआ कि साधारण पड़ोसियों का जिस तरह बरताव होना चाहिए और लडक़पन की दोस्ती का जिस तरह निबाह होना चाहिए उसके सिवा अमृत का मेरे साथ और किसी प्रकार का सम्बन्ध है या हो सकता है। बेशक जब वह घड़ा लेकर कुएँ पर पानी खींचने के लिए जाती थी तब अमृत भी ईश्वर जाने कहाँ से वहाँ आ पहुँचता था और जबरदस्ती उसके हाथ से घड़ा छीनकर उसके लिए पानी खींच देता था और जब वह अपनी गाय को सानी देने लगती थी तब वह उसके हाथ से भूसे की टोकरी ले लेता था और गाय की नांद में सानी डाल देता था। जब वह बनिये की दूकान पर कोई चीज लेने जाती थी तब अमृत भी अक्सर उसे रास्ते में मिल जाया करता था और उसका काम कर देता था।
पूर्णिमा के घर में कोई दूसरा लडक़ा या आदमी नहीं था। उनके पिता का कई साल पहले परलोकवास हो चुका था और उसकी माँ परदे में रहती थी। जब अमृत पढ़ने जाने लगता तब पूर्णिमा के घर जाकर पूछ लिया करता कि बाजार से कुछ मँगवाना तो नहीं है। उसके घर में खेती-बारी होती थी, गायें-भैंसें थीं और बाग-बगीचे भी थे। वह अपने घरवालों की नजर बचाकर फसल की चीजें सौगात के तौर पर पूर्णिमा के घर दे आता था लेकिन पूर्णिमा उसकी इन खातिरदारियों को उसकी भलमनसाहत और खाने-पीने से सन्तुष्ट होने के सिवा और क्या समझे और क्यों समझे ? एक गाँव में रहने वाले चाहे किसी प्रकार का रक्त-सम्बन्ध या कोई रिश्तेदारी न रखते हों, लेकिन फिर भी गाँव के रिश्ते से भाई-बहन होते ही तो हैं। इसलिए इन खातिरदारियों में कोई खास बात न थी।
एक दिन पूर्णिमा ने उससे कहा भी, कि तुम दिन-भर मदरसे में रहते हो, मेरा जी घबराता है।
अमृत ने सीधी तरह से कह दिया-क्या करूँ, इम्तहान पास आ गया है।
“मैं सोचा करती हूँ कि जब मैं चली जाऊँगी, तब तुम्हें कैसे देखूँगी और तुम क्यों मेरे घर आओगे ? “
अमृत ने घबराकर पूछा-कहाँ चली जाओगी ?
पूर्णिमा लजा गई। फिर बोली-जहाँ तुम्हारी बहनें चली गयीं, जहाँ सब लड़कियाँ चली जाती हैं।
अमृत ने निराश भाव से कहा-अच्छा, यह बात ?
इतना कहकर अमृत चुप हो गया। अभी तक यह बात कभी उसके ध्यान में ही नहीं आयी थी कि पूर्णिमा कहीं चली भी जाएगी। इतनी दूर तक सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी। प्रसन्नता तो वर्तमान में ही मस्त रहती है। यदि भविष्य की बातें सोचने लगे तो फिर प्रसन्नता ही क्यों रहे ?
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